Sunday, April 26, 2020

मां

आशा और निराशा के बीच खड़ी
एक छाव सी तुम,
अपने पल्लू से निराशा की तपन को रोके, मेरे सिहरते हुए एहसासों को अपनी गोद में समेटे, 
मेरे घर आने के पलों को समेटने आंगन में खड़ी तुम, 
और एक शब्द में तुम्हे ढूंढता मेरा अस्तित्व, पर तुम मां हो या मां शब्द तुमसे बना है ?  --- सुबोध

प्रेम कृष्ण की दृष्टि से


निसर्ग अधरों पे मेरे,
निसर्ग स्वर का परिवर्तन,
आमंत्रण है तुम्हे प्रिए,
नित प्रेम प्रकाश करूं अर्पण।

कहीं कूक पपिहा दे रहा,
विरह का अपनी अभिवेदन,
मुझ निश्चल की सांसे अविरत,
मांगे तुमसे अविरल जीवन।

श्याम घटा के विलयों में,
केशों का तुम्हारे परिचित्रण,
नभ की नीरव खामोशी सा,
तुम्हारे स्पर्श का स्पंदन ।

विस्तृत तुरंग तरंग सदा,
तुमसे पुलकित सारा जीवन,
इस लोक में तुमसे प्रेम बनें,
अतुलित महिमा का दिग्दर्शन ।

             सुबोध

यादें

यादें रह जाती हैं एक हरी पत्ती की तरह,
हवाओं से लड़ती सूखी टहनी से चिपकी,
बोलते हुए सन्नाटे से नोक झोंक करती,
इस उम्मीद में कि ये दरख़्त फिर हरा हो ।